Article about Vishwakarmadada
Kaushik Panchal - (Dholwani)
श्री विश्वकर्मा वंशावली
जैसे राम् कृष्णा आदि ईश्वर के अनेक अवतार पुराणों में वर्णन किये गये है, वैसे ही विश्वकर्मा भगवान के अवतारों का वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में महादेव जी ने पार्वती जी से कहा है कि हे पार्वती मैं आप से पाप नाशक कथा कहता हूं। इसी कथा में महादेव जी ने पार्वती जी को विश्वकर्मेश्वर लिगं प्रकट होने की कथा कहते हुए त्वष्टा प्रजापति के पुत्र के संबंध में कहाः
प्रथम अवतार
विश्वकर्माSभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराSतनुः । त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस ।।
अर्थः प्रत्यक्ष आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों मे निपुण था।
दूसरा अवतार
स्कन्द पुराण प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का वर्णन इस भातिं मिलता है। ईश्वर उचावः
शिल्पोत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः । विश्वकर्माSभवत्पूर्व शिल्पिनां शिव कर्मणाम् ।।
मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः । हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
एक समय कैलाश पर्वत पर शिवजी, पार्वती, गणपति आदि सब बैठे थे उस समय स्कन्दजी ने गणपतिजी के रत्नजडित दातों और पार्वती जी के जवाहरात से जडें हुए जेवरों को देखकर प्रश्न किया कि, हे पार्वतीनाथ, आप यह बताने की कृपा करे कि ये हीरे जवाहरात चमकिले पदार्थो किसने निर्मित किये? इसके उत्तर में भोलानाथ शंकर ने कहा कि शिल्पियों के अधिपति श्री विश्वकर्मा की उत्पति सुनो। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा पांच मुखों से पांच जटाधरी पुत्र उत्पन्न हुए जिन के नाम मनु, मय, शिल्प,त्वष्टा, दैवेज्ञ थे। यह पांचों पुत्र ब्रह्मा की उपासना में सदा लगें रहतें थे इत्यादि।
तीसरा अवतार
आर्दव वसु प्रभास नामक को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति जी की बहिन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन वायुपुराण अ.22 उत्तर भाग में दिया हैः
बृहस्पतेस्तु भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी । योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा ।।
प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु । विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ।।
मत्स्य पुराण अ.5 में भी लिखा हैः
विश्वकर्मा प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः । प्रसाद भवनोद्यान प्रतिमा भूषणादिषु । तडागा राम कूप्रेषु स्मृतः सोमSवर्धकी ।।
अर्थः प्रभास का पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव, मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावडी और कुएं निर्माण करने देव आचार्य थे।
आदित्य पुराण में भी कहा है किः
विश्वकर्मा प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः ।।
महाभारत आदि पर्व विष्णु पुराण औरं भागवत में भी इसका उल्लेख किया गया है।
विश्वकर्मा ऋषि
विश्वकर्मा नाम के ऋषि भी हुए है। विद्वानों को इसका पूरा पता है कि ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त दिया हुआ है, और इस सूक्त में 14 ऋचायें है इस सूक्त का देवता विश्वकर्मा है और मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वकर्मा है। विश्वकर्मा सूक्त 14 उल्लेख इसी ग्रन्थ विश्वकर्मा-विजय प्रकाश में दिया है। 14 सूक्त मंत्र और अर्थ भावार्थ सब लिखे दिये है। पाठक इसी पुस्तक में देखे लेंवे। य़इमा विश्वा भुवनानि इत्यादि से सूक्त प्रारम्भ होता है यजुर्वेद 4/3/4/3 विश्वकर्मा ते ऋषि इस प्रमाण से विश्वकर्मा को होना सिद्ध है इत्यादि। पाठकगण। वेदों और पुराणों के अनेक प्रमाणों से हम विश्वकर्मा को परमात्मा परमपिता जगतपिर्त्ता, सृष्टि कर चुके तथा विश्वकर्मा के अवतारों को भी पुराणों से बता चुके है। अब भी कोई हटधमीं करें तो हमारे पास उनका इलाज करने का तरीका भी है। इन टकापन्थी भोजन भट्टों ने बहुत धूर्तता की है। विश्वकर्मा देव की अवेहलना करने से ही इस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे है। न इनके पास खुद की उत्पत्ति है यह टकशाली ब्राह्मण यह देख पद्म पुराण के वचनों पर तनिक ध्यान नहीं देते, देखों कितना साफ कहा है। अर्थ विष्णु और विश्वकर्मा में कोई भेद नही।
विश्वकर्मा अनेक नामों से विभूषित
जगतकर्ता विश्वकर्मा भौवन विश्वकर्मा, ऋषि विश्वकर्मा धर्म ग्रंन्थों में अनेक अवतरण आये है। विषय अनेकानेक नामॆ में बटा हुआ है विश्वकर्मा ब्राह्मण कर्म है, अर्थात विश्वकर्मा सन्तान कहने का दावा करने वाले तथा अपने को पांचाल शिल्पी ब्राह्मण बताने वाले खरे ब्राह्मण है। यहां हम धर्मग्रन्थों के प्रमामों को देकर अन्त में ग्रथों के आधार पर भृगु, अंगिरा, मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ आदि की वंशावली भी सप्रमाण दिखायेंगे।
प्राचीन धर्म शास्त्रों में
शिल्पज्ञ, विश्वकर्मा ब्राह्मणों को रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पाँचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों में सम्बोधित किया गया था। उस समय आजकल के सामान लोहाकारों, काष्ठकारों और स्वर्णकारों आदि सभी के अलग-अलग सहस्त्रों जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय में शिल्प कर्म बहुत उंचा समझा जाता था, क्योंकि धर्मग्रंथों की खोज में हमें पता चलता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों ही वर्ण रथ कर्म अर्थात शिल्प कर्म करतें थे। हम यहां विश्वकर्मा ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्य विषयक कुछ प्रमाण देने से पूर्व यह उचित समझते है कि रथकार, पाचांल, नाराशस इत्यादि शब्दों के विषय में कुछ थोडा समजझा दें। जिससे आगे को जो धर्म शास्त्रों के प्रमाण हम दिखायेंगे उनमें जब इन शब्दों में से कोई आवे तो हमारे पाठकों को समझने में कठिनाई न पडें।
रथकार
यह शब्द प्राचीन धर्मग्रन्थों में अनेक स्थलों पर आया है, और उनकें शिल्पी ब्राह्मण के स्थान में प्रयोग हुआ है। अर्थात लोककार, काष्टकार, स्वर्णकार, सिलावट और ताम्रकार सब ही काम करने वाले कुशल प्रवीण शिल्पी ब्राह्मण का बोध केवल रथकार शब्द से ही कराया गया है, और यही शब्दों वेदों तथा पुराणों में भी शिल्पज्ञ ब्राह्मणों के लिए लिखा गया है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड अध्याय 6 में रथकार शब्द का प्रयोग हुआ हैः
सद्योजाता दि पंचभ्यो मुखेभ्यः पंच निर्भये ।। विश्वकर्मा सुता होते रथ कारास्तु पचं च ।।
तास्मिन् काले महाभागो परमो मय रुप भाक् ।। पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा ।।
काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्यों ददौ विभुः ।। रथ कारास्तदा चक्रुः पचं कृत्यानि सर्वदा ।।
षडदशनाद्य नुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये ।।
अर्थः शंकर बोले कि हे स्कंन्द, सद्योजात् वामदेव, तत्पुरूष, अधीर और ईशान यह पांच ब्रह्म सज्ञंक विश्वकर्मा के पांच मुखों से पैदा हुए। इन विश्वकर्मा पुत्रों की रथकार सज्ञां है। अनेक रूप धारण करने वाले उस विश्वकर्मा ने अपने पुत्रों को टांकी आदि दस शिल्प आयुध अर्थात दस औजार सोना आदि नौ धातु लोहा, लकडीं आत्यादि दिया। उसके यह षटेकर्म करने वाले रथकार सृष्टि कार्य के पंचनिध पवित्र कर्म करने लगे।
रथकार शब्द क ब्राह्मण सूचक होने के विषय में व्याकरण में भी अष्टाध्यायी पाणिनि सूत्र पाठ सूत्र - शिल्पिनि चा कुत्रः 6/2/76 सज्ञांयांच 6/2/77
सिद्धांत कौमुदी वृतिः- शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते ।
परे पूर्व माद्युदात्तं, स चेदण कृत्रः परो न भवति ।
ततुंवायः शिल्पिनि किम- काडंलाव, अकृत्रः किं-कुम्भकारः ।
सज्ञां यांच अणयते परे तंतुवायो नाम कृमिः ।
अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम ब्राह्मणः पाणिनिसूत्र 4/1-151 कृर्वादिभ्योण्यः ।
ब्राह्मण जाति सूचक अर्थ को बताने वाले जो गोत्र शब्द गण सूत्र में दियें है, वह यह हैः कुरू, गर्ग, मगुंष, अजमार, ऱथकार, बाबदूक, कवि, मति, काधिजल इत्यादि, कौरव्यां, ब्राह्मणा, मार्ग्य, मांगुयाः आजमार्याः राथकार्याः वावद्क्याः कात्या मात्याः कापिजल्याः ब्राह्मणाः इति सर्वत्र।
तात्पर्य यह है कि व्याकरण शास्त्र में भी रथकार शब्द को आर्य गोत्र, ब्राह्मण जाति बोधक सिद्ध किया हुआ है और उसका उदाहरण भी रथकारों नाम ब्राह्मण दिया है। जिससे सिद्ध किया गया है कि रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है क्योकिं- रथं करोतिं इति रथकारः। अर्थात रथ निर्माण करने वाले ब्राह्मण का बोध प्राचीन ग्रथों में रथकार शब्द से होता है। यहां यह भी लिख देना जरूरी जान पडतां है कि स्मृतियों में रथकार एक संकीर्ण जाति को भी लिखा है, परन्तु जहां पवित्र देव शिल्प आदि का वर्णन आता है।वहां शिल्पी ब्राह्मण संतति रथकार का ही मतलब होता है। आपको रतकार विषय में शास्त्र के मन्त्र और रथकार का प्राचीन समय में जो मान, समान्न प्रतिष्ठा थी उस समय विश्वकर्मा का रथकार रूप विस्तृत था। राजे महाराजा सभी विश्वकर्मा रथकारों को आदर देते थे क्योंकि कलाकार राष्ट्रं के निर्माण करने मे अग्रसर रखतें थे यह ब्राह्मण वर्ग रथकारों में था।
पांचाल
रथकार शब्द के विषय के नमूने के तौर पर ऊपर उदाहरण देकर बता चुके है। अब इसी भातिं एक दो उदाहरण पांचाल शब्द के विषय में भी देकर बतावेंगे कि विश्वकर्मा ब्राह्मणों को प्राचीन धर्म ग्रन्थों में पांचाल भी कहा गया है। बराह पुराण में कहा हैः
पांचाल ब्राह्मणेति हासः कथं ।। तत्र सुवर्णालंकार वाणिज्यों प जीविनः पांचाल ब्राह्मणा ।।
शैवागम में कहा हैः
पंचालाना च सर्वेषामा चारोSप्य़थ गीयते । षट् कर्म विनिर्मित्यनी पचांलाना स्मुतानिच ।।
रूद्रयामल वास्तु तन्त्र में शिवाजी महाराज ने कहा किः
शिवा मनुमंय स्त्वष्टा तक्षा शिल्पी च पंचमः ।। विश्वकर्मसुता नेतान् विद्धि प्रवर्तकान् ।।
एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि ।। पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो ।।
पंचालास्ते सदा पूज्याः प्रतिमा विश्वकर्मणः ।। रूद्रवामल वास्तु तन्त्र व्रत्यादि ।।
उपरोक्त प्रमाणों में पाचांल शब्द का प्रयोग विश्वकर्माके स्थान में किया गया है। अर्थात् रथकार और पांचाल दोनों शब्द विश्वकर्मा ब्राह्मण बोधक ही है।
स्थापत्य
यज्ञ कर्म और देव कर्म संबंधी कर्म में कहीं कहीं विश्वकर्मा पाचांल ब्राह्मण की सज्ञां स्थापत्य भी कही गई है। जैसे भागवत स्कन्द 3 में स्थापत्य विश्वकर्म शास्त्र लिखा है, इसका यही अर्थ है कि यज्ञ सम्बधी और देव संबधी पवित्र शिल्प कर्म करने वाले विश्वकर्मा सन्तान ब्राह्मण है। इसकी पुष्टि अमर कोष के प्रमाण से भी होती है।
देखो - अमर कोष अ. ब्रह्मवर्ग - सगींष्प तोष्टय्या स्थपतिः
अर्थः बृहस्पति सज्ञंक इष्ट अर्थात् बृहस्पति सज्ञां वाले यह कर्म करने वाले बृहस्पति गुरू को कहते है और दूसरे बृहस्पति विश्व-कर्म कुलोत्पन्न शिल्पाचार्य हुए है।
नाराशंस
अंगिरा महर्षि को ऋग्वेद में नाराशंस कहा है इसका प्रमाण ऋग्वेद अ. 8/2/1 मे देखो - नराः अगिंरसः महर्षयः मनुष्य जाता वुत्पन्नत्वात् ते शंस्यते इति नाराशंसः।
बौधायन श्रौत् सूत्र के महा प्रवराध्याय में भी लिखा है - वसिष्ट शुनिकात्रि भृगु कण्व वाघ्रश्चाधूल राजन्य वैश्य इति नाराशंसः ।।
गोत्र प्रवर दर्पण में भी यह शब्द पाया जाता है - भृगु गणे त्वष्टयाः अग्ने नाराशंसान् व्याख्या स्यामः। वशिष्ठ शुनकात्रिभृगु काण्व बाघ्रश्चाधूल इति ।।
नाराशंस शब्द पितर सज्ञां में भी प्रयुक्त हुआ है। देखो ऋग्देव अध्याय 8/1/16/3 - मनोन्वा हुवामुहे नाराशंसेन सोमेने ।।
भाष्य - नरेः शस्यते इति नाराशंसः पितरः ।।
आश्वलायन श्रौत सूत्र में भी नाराशंस का प्रयोग मिलता है। देखो सूत्र 5/6/30 - आप्यायिताश्चिमतान् सादयंति ते नाराशंस भवति ।।
उपरोक्त अनेक प्रमाण हमने रथकार पांचाल, रथापत्य और नाराशंस शब्दों के प्रयोग को जिखाकर यह सिद्ध किया हा कि यह सब जहां कही भी धर्म ग्रन्थों में भी लिखे गये है। वहा वह शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक है। अब आगे हम यह सिद्ध करके दिखोयेगें कि विश्वकर्मा वंश के ब्राह्मण होने के और भी अनेक प्रमाण सनातनी धर्म ग्रन्थों मे खोजने से मिले सकते है। उपरोक्त ऱथकार, पांचाल, रथकार, नाराशंस यह सब स्तंभ प्रमाण सग्रंह अर्थात विश्वकर्म - ब्राह्मण - भास्कर से संग्रहीत किए है। यह पुस्कत स्वः जयकृष्ण मणिठिया, शर्मा, गुरूदेव की सग्रंहीत है जिसे विश्वकर्मा-विजय-प्रकाश में कई स्तम्भ संग्रहीत कर प्रकाशित किये है।
भृगु ऋषि कुल
वायु पुराण अध्याय 4 के पढने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वास्तव में विश्वकर्मा सन्तान भृगु ऋषि कुल उत्पन्न है देखों लिखा हैः
भार्ये भृगोर प्रतिमे उत्तमेSभिजाते शुभे ।। हिरण्य कशिपोः कन्या दिव्यनाम्नी परिश्रुता ।।
पुलोम्नश्चापि पौलोमि दुहिता वर वर्णिनी ।। भृगोस्त्वजनयद्विव्या काव्यवेदविंदा वरं ।।
देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुंत ग्रहं ।। पितृंणा मानसी कन्या सोमपाना य़शस्विनी ।।
शुक्रस्य भार्यागीराम विजये चतुरः सुतान् ।। ब्राह्मणे मानसी कन्या सोमपाना यशस्विनीः ।।
तस्या मेव तु चत्वार पुत्राः शुक्रस्य जज्ञिर ।। त्वष्टावरूपी द्वावेतौ शण्डामर्कोतु ताबुभो ।।
ते तदादित्य सकाया ब्रह्मकल्पा प्रभावतः ।।
अर्थः हिरण्यकश्यप की बेटी दिव्या और पुलोमी की बेटी पौलीमी उत्तम कुलीन, यह दोनों मृग ऋषि को विवाही गई। दिव्या नाम वाली स्त्री के गर्भ से शुक्राचार्य पैदा हुए। सोम्य पितरों की मानसी कन्या अगीं नाम वाली शुक्राचार्य को विवाही गई। शुक्राचार्य जी के सूर्य के समान ब्रह्म तेज वाले त्वष्टा, वस्त्र, शंड और अर्मक यह पुत्र पैदा हुए, इन चारो मे त्वष्टा ब्रह्म तेज से विशेष सुक्त था । अर्थात त्वष्टा में ब्रह्म तेज अधिक था। पाठक गण इससे स्पष्ट है कि त्वष्टा भृगु कुल मे पैदा हुआ और ब्राह्मण था, ब्राह्म तेज की विशे,ता ब्राह्मणत्व को साफ बता रही है। अब इसी कुल में त्वष्टा से विश्वकर्मा का जन्म सुनों।
त्रिशिरा विश्वरूपस्तु त्वष्टाः पुत्राय भवताम् ।। विस्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा प्रजापतिः ।।
अर्थः त्वष्टा प्रजापति के त्रिशिरा जिसका नाम विश्वरूप था बडा पराक्रमी औऱ उसका भाई विस्वकर्मा प्रपति यह दो पुत्र इसी विश्वकर्मा प्रजपति के विषय में स्कन्द पुराण रे प्रभास खंड में यह लिखा है।
विश्वकर्म महदभूतं विश्वकर्माणाम् मदंगेषु च सम्भूताः ।। पुत्रा पचं जटाधराः हस्त कौशल सम्पूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
अर्थः शिल्पियों में विश्वकर्मा बडा महान हुआ, जिसके पांच जटाधारी पुत्र हुए। इन्ही विश्वकर्मा के पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ का वायु पुराण अध्याय, 4 में उल्लेख किया हुआ है इन्हीं पाचं पुत्रों की सतांन जो हुई वह सब भृगु कुलोत्पन्न विश्व-ब्राह्मण या पांचाल ब्राह्मण कहलाई।
पाठकगण ध्यान दें कि उपरोक्त विदित वंश बिलकुल साफ-सुथरा और खरा है। इसमें कोई अण्ड-बण्ड ऐसी उत्पत्ति नहीं है। जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका में हम अकसाली ब्राह्मणों की उत्पत्ति जाति भास्कर और ब्राह्मणोंत्पत्ति मार्तण्ड के अधार पर दिखा चुके है। पाठको की जानकारी के लिए हम यहां भृगु कुल में उत्पन्न हुए सब ही ऋषियों का उत्पत्ति क्रमानुसार दिखाते है।
इस कुल में भृगु, च्यवन, दिवोदास और गृत्समद और शौनक यह वेद मत्रं के द्रष्टा हुए है।
भृगुः ब्रह्मदेव का मानस पुत्र क् शाप से मर गये तब ब्रह्मदेव ने उनको फिर उत्पन्न किया और वह वरूण के यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए और वरूण ने इनको अपना पुत्र ग्रहण किया। इसी कारण यह वारूणी भृगु के नाम से प्रसिद्ध हुए। विशेष जिसे देखना हो वायुपुत्र अ. 4 मत्स्य पुराण अ.252 महाभारत अनुशासन पर्व अ.85 निरूक्त दैवज्ञ कांड भाग पृ. 193 औऱ भारत वर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में देख सकतें है।
भार्गवः भृगु ऋषि के पुत्र सुक्राचार्य का ही नाम भार्गव है।यह देवों और दत्यों के दोनों के ही पुरोहित अर्तात् आचार्य थे। इन्होंने शिल्प शास्त्र का ओशनस नामक ग्रंथ भी लिखा है। वायु पुराण और बृहत्संहिता अ.50 में विशेष रूप से देख सकतें हैं।
त्वष्टाः शुक्राचार्य के चार पुत्रों में सें थे। इनमें अधिक ब्रह्मतेज था। विश्वरूप और विश्वकर्माइनके दो पुत्र थे।
शौनकः यह शुनक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि थे। पांचालो की शौन कायनी शाखा इन्हीं से चली है।
उपरोक्त सब ही ऋषि शिल्प कार्य करते थे। गोत्र प्रवर दीपिका में इस भृगु कुल के गोत्र प्रवर इस प्रकार दिये है।
भृगु ऋषि - भार्गव, च्यवन,, देवो दासेति।
वाध्न्यस्वा - भार्गव, वाध्न्यश्वा, देवो दासेति।
भार्गव - भार्गव, त्वष्टा, विश्वरूपेति।
वाधूल - भार्गव, वैतहव्य,सावेतसेति।
शुनक - शौनक, भार्गव, शौन हौत्र गार्त्समदप्ति।
किसी किसी ग्रन्थकार जैसे बोधयन नामक सूत्रकार ने वरिष्ठ शुनक अत्रि, भृगु, कण्व, वाध्न्यश्वा, वाधूल,यह गोत्र बी नाराशंस पांचालों के आर्षेय गोत्र लिखे है।
केवल आंगिरस कुल के प्रसिद्ध ऋषि
उपरोक्त अगिंरा वशांवली दी गई है, यह प्रमाण-सग्रंह से उधृत है। अगिंरा ऋषि ब्रह्मा, के मुख से उत्पन्न हुय़े। इनका वर्णन वेद, ब्राह्मण ग्रथं, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत और सभी पुराणों में उल्लेख है। अगिंरा कुल परम श्रेष्ठ कुल है।
अंगिरा
अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण, भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है। भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए। महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है। ऋग्वेद 10-14-6 मे कहा है किः
अमगिरासों नः पितरो नवग्वा अर्थर्वाणो भृगबः सोम्यासः। तेषां वयं सुभतौं यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसः स्यामः।।
अर्थः जिसके कुल में भरद्वाज, गौतम और अनेक महापुरूष उत्पन्न हुए ऐसे जो अग्नि के पुत्र महर्षि अंगिरा बडे भारी विद्वान हुए है उनके वशं को सुनों। अंगिरस देव धनुष और बाण धारी थे, उनको ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या यह तीनों विवाही गई। सुरूमा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव उतथ्य और उशिर यह पांछ पुत्र जन्में, पथ्या के गर्भ से विष्णु संवर्त, विचित, अयास्य असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा यह सात पुत्र उत्पन्न हुए। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र ऱथकार में बडें कुशल देवता थे, तो भी इनकी गणना ऋषियों में की गई है। बृहस्पति का पुत्र महा य़शस्वी भरद्वाज हुआ, यह सब अंगिरा भृगु आदि द्व शिल्प के निर्माण वाले रथकार नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमे स्पष्ट सिद्ध हो गया की प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों रथकार भी कहा करते थे और रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है,इस विषय में हम पूर्व पर रथकार शब्द को व्याकरण की कसौटि पर कसकर ब्राह्मण बोधक सिद्ध कर चुके है।
महाभारत अमुसाशन पर्व अध्याय पर्व अध्याय 83 में अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय सज्ञां होने के विषय में यह उल्लेख हैः
अष्टौ चांगिरसः पुत्राः आग्नेयास्तेSप्युवाह्रताः। बृहस्पतिरूतथ्यश्य पयस्यः शांतिरेवच। धोरो विरूपः संर्वतः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
श्री विश्वकर्मा प्रश्नावली
? निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां है, बहुत ये विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपधिं मानते है, क्योंकि सस्कृंत साहित्य मे बि समकालीन कई विश्वकर्माओ का उल्लेख मिलता है ।
Ans : निःसदेंह यह विषय निर्भ्रय नही है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तता त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा आदि अनेंको विश्वकर्मा हुए है । यह अनुसंधान का विषय है । सम्पूर्ण सस्कृंत साहित्य का अवलोकन किया जाय, विदेशो मे भी खोज की जाय, क्योकि यूरोपिय लोग भी लिश्वकर्मा कों “ फॅदर आँफ आर्टस ”(father of Arts) मानते है यह उत्कृष्ट विद्वानों का महान कार्य है, परन्तु अब तक की खोज के आधार पर जों निष्कर्ष सम्मुख आया है उसी के आधार पर कहा जा सकता है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा के पश्चात् ही उपाधि प्रचलित होती है। प्रारंभ से नहीं । विश्वकर्मा ही नहीं इन्द्र, व्यास, ब्रह्मा, जनक, धन्वन्तरि आदि अनेकों ऐसी उत्कृष्ट विभूतिययँ उपाधियों के रुप में प्रचलित हैं, परन्तु इनका मूल पुरुष अवश्य है। जैसे देवराज नामक इन्द्र द्वारा जब विश्वकर्मा पुत्रों की हत्या करकें ब्रह्महत्या का पता लगा तो ऋषियों औरं देवताओं ने मिलकर देवराज इन्द्र को पदच्युत कर इन्द्र को गद्दी पर आसीन कर दिया, इसी प्रकार सीताजी को जिस राजा जनक की पुत्री माना जाता है उसका नाम राजा सीरध्वज था । व्यास और ब्रह्मा उपाधि धारकों के लिये भी मूल पुरुष की खोज की जा सकती हैं ।
हमारा उद्देश्य तो यहां विश्वकर्मा का परिचय कराना है, माना कई विश्वकर्मा हुए हंत और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणो को धारण करने वाले ऋष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो बात भी मानी जानी चाहिये । शास्त्र में भी लिखा हैः-
स्थपति स्थापनाई : स्यात् सर्वशास्त्र विशारद : । न हीनागडों अतिरिक्तगडों धार्मिकस्तु दयापर:।। 1 ।।
अमात्सर्यो असूयश्चातन्द्रियतस्त्वभिजातवान् । गणितज्ञ : पुराणज्ञ सत्यवादी जितेन्द्रिय:। 2 ।।
गुरुभक्ता सदाहष्टा: स्थपत्याज्ञानुगा: सदा । तेषाम्व स्तपत्याख्यो विश्वकर्मेति सस्मृत:।। 3 ।।
अर्थः- जो शिल्पी निर्माण कला में सिध्दहस्त सन्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो ।।1।। जो अहंकार करनेवाले ईर्ष्यालु और प्रमादी न हो, गणित विद्दा का पुर्ण पडिंत हों, वेंदों के व्याख्यान रुप ब्रह्मण ग्रथों और इतिहास में पारंगत हो, सत्यवादी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला आज्ञाकारी हो इस प्रकार के गुणों से युक्त रचियता को विश्वकर्मा कहते है ।।3।। मयमतम् के कथन से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि प्रचलित हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि विश्वकर्मा नाम का कोई मूल पुरुष या पुरुष हुआ ही न हो !विव्दानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरूष विश्वकर्मा कौन से हुए ? कुछेक विव्दान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते है, परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभास पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते है , परन्तु महाभारत कें खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभास पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें है । स्कंद पुराण प्रभास खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है-
बृहस्पतेस्तु भगिनी भुवना ब्रम्हवादिनी । प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च । विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
अर्थः महर्षि अंगिरा कं ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रम्हविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभात की पत्नी बनी और उसमें सम्पूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ । पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है ऐसा पाठभेद अवश्य है ।
? आप आदि विश्वकर्मा किसे मानतें है ?
हम प्रभात पुत्र भुवना माता से उत्पन विश्वकर्मा को ही आदि या मूल विश्वकर्मा मानते है।
? यह बात आप किस आधार पर कहते है?
Ans : हजारों वर्ष पहले महाराज भोज देव ने जो सस्कृंत के प्रकांड पडिंत थे वास्तु विद्या का ग्रंथ “ समरागंण सूत्रधार ” लिखा था उसमें लेखक ने अपना इष्टदेव भगवान विष्वकर्मा को माना है उन्होने ग्रंथ के आदि में अपने इष्ट का स्वतवन करतें हुए लिखा है-
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिध्दि प्रवर्तकः । सुतः प्रभासस्य विभो स्वस्त्रीयश्च बृहस्पतेः ।।
अर्थः शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है,सम्पूर्ण सिध्दियों का आचार्य है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र देवगुरु बृहस्पति का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहित) है। अगिंरा कुल से विश्वकर्मा का संबंध तो सभी विद्वान स्वीकार करतें है। भोजदेव के प्रमाण में किसी को शंका यों नही होनी चाहिये कि आधुनिक काल के महाविद्वान महर्षि दयानन्दने लिखा है- “महाभारत के पश्चात हजारों वर्ष व्यतीत होने पर ङोज को वेदों का ज्ञान था। भोजकाल मे ही शिल्पियों ने काठ का घोडा बनाया था। जो एक घन्टे मे सत्ताईस कोस चलता था । ऐसा ही एक पखां बनाया था बिना मनुष्य के चलाये पुष्कल वायु देता था । यदि ये पदार्थ आज तक बने रहते तो अंग्रेजों को इतना गर्व नही होता । भोजकाल में किसी ने वेद विरुध्द पुराण खडा किया था तो राजा भोज ने उसके हाथ कटवा दिये थे ।
हमारा कथन यह है कि जब हजारों वर्ष पहले तक आदि विश्वकर्मा को महर्षि प्रभाव का पुत्र मानने का प्रचलन था या परम्परा थी तो अब इस काल में शंका क्यों की जाती है ? विश्वकर्मा कोई आधुनिक काल का देवता तो है नहीं ये तो वैदिक कालीन है। ऋग्वेद जो विश्व का सबसे प्रचीन ग्रथं माना जाता है उसमे चौदह ऋताओ वाला विश्वकर्मा सूक्त है। यदिपुराणो की वेदव्यास की रचना माना जाये तो पद्मपुराण भू खण्ड के इन शब्दों पर विचार करें- सर्व देवेषु यत्सूक्तं पठ्यते विश्वकर्मणः। चतुर्दशा वृतेनौनें यइमेत्यादिना यजेत् ।।2।। अर्थातसबी देवगणं विश्वकर्मा संबंधी जिस सूक्त का पाठ कर यजन करतें है वह8 सूक्त यइमाभुवनानि मंत्र से आरंभ होता है और ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 82 के सातवें मत्रं तक 14 ऋचाओं में पूर्ण होता है । यास्काचार्य ने भी निरक्त मे विश्वकर्मा के सार्वभौम यज्ञ का वर्णन करते हुए लिखा है- तदभिवादिनी एषा ऋक् भवति । यइमा विश्वा भुवनानि जुहवत इति । इस कथन में भी ऋग्वेद के यइमा शब्दों से आरंभ होने वाती ऋचा का उल्लेख है जिसके द्वारा आरंभ करके सूक्त के चौदहों मत्रों से यज्ञ सम्पन्न हुआ ।चौदह मत्रों का यह सूक्त और इसका देवता तथा ऋषि तीनों ही विश्वकर्मा नाम से ऋग्वेद में उल्लिखित है। हजारों-हजारों वर्षों के ये शास्त्रीय प्रमाण सिद्ध करते है कि निर्माण के देवता विश्वकर्मा की पूजा के प्रसंग में अत्यतं प्राचीन काल से यजन याजन होते रहे है । भारतीय इतिहास में इतनी प्राचीन वैदिक पूजा पद्धती और किसी देवता की नही मिलती ।
? सूक्त का क्या अर्थ है और वेदों में कितने सूक्त होते है ?
Ans : सूक्त शब्द सू + उक्त इस प्रकार बना है सू का उर्थ है सुन्दर ढंग से या भली प्रकार उक्त का अर्थ है कहना या बताना जिस मंत्र समूह में किसी विषय को भली प्रकार कहा जाय अर्थात सुन्दर अभिव्यकित को सूक्त कहते हैं। वेदों में सैकडो ही सूक्त हैं जैसे इन्द्र सूक्त, अग्नि सूक्त इसी प्रकार विश्वकर्मा सूक्त आदि हैं।
? यह बात तो समझ में आ गई जब प्रभात पुत्र विश्वकर्मा की आदि विश्वकर्मा के रुप में हजारों वर्ष पूर्व से मान्यता रही है तो यह विवाद का विषय नही रहा । परन्तु एक शकां नए सिरे से उभरकर सामने आई है, आपने बताया विश्वकर्मा सूक्त का मंत्र द्रष्टा ऋषि भौवन है जिसे दूसरे विद्वान भुवन पुत्र विश्वकर्मा बताते हैं। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा के साथ तो भौवन शब्द कैसे सिद्ध होगा या फिर वेदमंत्र द्रष्टा ऋषि दूसरा विश्वकर्मा मानना पडेगा ?
Ans : हमने जैसा कि पहले बताया है विश्वकर्मा का विषय गहन अनुसधांन का फिर भी भौवन शब्द का निराकरण वेद के भाष्य कर्ता शतायु विद्वान श्रीपाद दामोदर सातवलाकर ने अपनी लिखी पुस्तक “ विश्वकर्मा ऋषि का तत्वज्ञान ” में अनेंको विद्वानों के मत से इस प्रकार किया है कि प्रभात पुत्र विश्वकर्मा की माता जो देवगुरु बृहस्पति की बहन है उसका नाम भुवना होने के कागण पुत्रका नाम भौवन विश्वकर्मा माना गया है, और यही भौवन विश्वकर्मा वैदमंत्र ऋषि है । भुवना शब्द भुवन से बना है जिसका अर्थ हैं लोक । तीनों भुवनों (लोंकों) मे जिसकी ख्याति हो उसे भुवना कहते है।
? आपने विश्वकर्मा को सभी देवताओं का आचार्य बताया है । हमें यह मान्यता पक्षपातपूर्ण लगती है, स्पष्टीकरण कीजिये ।
Ans : हमनें नही, महाराज भोजदेव ने अपने ग्रन्थ ‘ समरांगण सूत्रधार ’ में उन्हें तदेश त्रिदशाचार्य सरेव सिद्धी प्रवर्तकः अर्थात सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक और देवताओं का आचार्य माना है । अष्ट सिद्धी और नव निधिंया मानी गई है । आज भी जिस समाज ऐर राष्ट के नागरिकों के शिल्प विज्ञान का ज्ञान है सम्पूर्ण सिद्धियों मौजुद है वे ही देवताओं का आचार्य है । भोजदेव ने ही क्यों पुराणों में विश्वकर्मा जी को सर्व देव मय माना हैं। स्कन्द पुराण नागर खण्ड में लिखा है,
विश्वकर्माअभवत्पूर्व ब्रह् मरस्त्वपरातनुः ।
अर्थ पूर्व काल में ब्रह्मा जी और विश्वकर्मा जी का एक ही शरीर था । यहां विश्वकर्मा को ब्रह्मा का स्वरुप माना है। वायु पुराण में आता है 'विष्णुश्च विश्वकर्माचनभिद्येतेपरस्परम्' विष्णु भगवान और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं मानना चाहिये । ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ बृद्धवाशिष्ठ में लिखा है माघे शुक्ले त्रयोदश्यांदिवा पुण्ये पुनर्वसौ । अष्टा विंशति में जातःविश्वकर्मा भवनि च । अर्थः-शिवाजी महाराज अपनी पत्नी पार्वती को कह रहे है माघ के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी के दिन पुनर्वस नामक नक्षत्र के अट्ठाईसवें अशं में विश्वकर्मा स्वरुप में उत्पन्न हुआ । यहां शिव अपने को विश्वकर्मा स्वरुप मे मान रहे है । पुराणों मे स्पष्ट उल्लेख है 'कृष्णश्च विश्वकर्मा च न भिद्येते परस्परम् ।' अर्थात भगवान कृष्ण और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं है । पुराणों के इन प्रमाणों से सभी शिरोमणि देवगण ब्रह्मा, विष्णु, शिव और भगवान कृष्ण तक विश्वकर्मा स्वरुप मे अपने को स्वीकार करतें है। देवियों मे विद्या की अधिष्ठात्री देवी प्रथम वन्दनीय मानी जाती है उसके लिये भी पुराणकार कहते है त्वाष्ट्ररुपा सरस्वती सर्व देवी भी विश्वकर्मा जी का ही स्वरुप है । पुराण तो वेदाव्यास जी महाराज के लिखे माने जाते है । जब वेदाव्यास जी सम्पूर्ण देवी देवताओं को विश्वकर्मा स्वरुप मानते है तो विश्नकरम जी को देवताओं का आचार्य मानने में किसे सन्देह हो सकता है ?
? जैसा कि आपने भी माना है सभी विद्वान ऐर शास्त्रकार विश्वकर्मा जी कों अगिंरा ऋषि कुल से जोडते है परन्तु अगिंरा ऋषि को तो ब्राहण मात्र गोत्रकार षि मानते है फिर आपका ही विशेष लगाव कैसे माना जाय ?
Ans : नि:संदेह महाभारत में लिखा है भार्गवांगिरसो लोके संताल लक्षणौ इसका तात्पर्य है पृथ्वी पर सभी मनुष्य भृगु और अंगिरा की संतान है इसलिये इन ऋषियों पर सभी का अधिकार माना जा सकता है । परन्तु विश्वकर्मा वंशजों का तो अंगिरा से सीधा ही संबंध है । विश्वकर्मा ब्राहाण लोग अथर्ववेद हैं, अथर्ववेद का ज्ञान परमात्मा ने अंगिरा ऋषि द्वारा ही ब्रह्रमा और दूसरे ऋषियों तक पहुचाया है, सृष्टी के आरंभ में चार ऋषियों द्वारा ही चारों वेंदों का ज्ञान मानव मात्र के लिये दिया, ऐसा वेदों की मान्यता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामदेव और अर्थर्ववेद का ज्ञान क्रमषः अग्नि, वायु आदित्य और ऋषियों द्वारा ही मानव जाति को प्राप्त हुआ । इस बात को वेंदो के सभी विद्वान स्वीकार करतें है, चारों वेदों के चार ही उपदेव है सस्कृंत साहित्य के ग्रंथ चरणव्युह आदि में स्पष्ट उल्लेख हैं
आयुर्वेदश्चिकित्सा शास्त्रंऋग्वेदस्योपवेदः। धनु र्वेदो युद्ध शास्त्रंयजुर्वेदस्योपवेदः। गंधर्ववेद सगींत शास्त्रं सामवेदस्योपवेदः। अर्थव्दो (स्थापत्यवेदो) विश्वकर्मादि शिल्प शास्त्रं अर्थर्ववेदस्योपवेदः ।।
अर्थः ऋग्वेद का उण्वेद आयुर्वेद है जिसे चिकित्सा शास्त्र कहते है । यजुर्वेद का उपदेव धनुर्वेद है जिसे सगींत शास्त्र कहते है और अर्थर्ववेद का उपदेव अर्थर्ववेद है जिसके अन्तर्गत विश्वकर्मा का सम्पूर्ण शिल्प शास्त्र आता है । इस प्रकार हम वंशावली के साथ–साथ अथर्ववेदी होने सीधे अंगिरा ऋषि से जुड जाते है ।
Lord Vishwakarmadada
Vishwakarma is the presiding deity of all craftsmen and architects. Son of Brahma, he is the divine draftsman of the whole universe, and the official builder of all the gods' palaces. Vishwakarma is also the designer of all the flying chariots of the gods, and all their weapons.
The Mahabharata describes him as "The lord of the arts, executor of a thousand handicrafts, the carpenter of the gods, the most eminent of artisans, the fashioner of all ornaments ... and a great and immortal god." He has four hands, wears a crown, loads of gold jewelry, and holds a water-pot, a book, a noose and craftsman's tools in his hands.
Vishwakarma Puja:
Hindus widely regard Vishwakarma as the god of architecture and engineering, and September 16 or 17 every year (in Gujarati months Maha sud teras Vishwakarmateras) are celebrated as Vishwakarma Puja — a resolution time for workers and craftsmen to increase productivity and gain divine inspiration for creating novel products. This ritual usually takes place within the factory premises or shop floor, and the otherwise mundane workshops come alive with fiesta. Vishwakarma Puja is also associated with the buoyant custom of flying kites. This occasion in a way also marks the start of the festive season that culminates in Diwali.
Vishwakarma's Architectural Wonders:
Hindu mythology is full of Vishwakarma's many architectural wonders. Through the four 'yugas', he had built several towns and palaces for the gods. In "Satya yuga", he built the Swarg Loke, or heaven, the abode of the gods and demigods where Lord Indra rules. Vishwakarma then built the 'Sone ki Lanka' in "Treta yuga", the city of Dwarka in "Dwapar yuga", and Hastinapur and Indraprastha in the "Kali yuga".
'Sone Ki Lanka' or Golden Lanka:
According to Hindu mythology, 'Sone ki Lanka' or Golden Lanka was the place where the demon king Ravana dwelled in the "Treta yuga." As we read in the epic story Ramayana, this was also the place where Ravana kept Sita, Lord Ram's wife as a hostage.
There is also a story behind the construction of Golden Lanka. When Lord Shiva married Parvati, he asked Vishwakarma to build a beautiful palace for them to reside. Vishwakarma put up a palace made of gold! For the housewarming ceremony, Shiva invited the wise Ravana to perform the "Grihapravesh" ritual. After the sacred ceremony when Shiva asked Ravana to ask anything in return as "Dakshina", Ravana, overwhelmed with the beauty and grandeur of the palace, asked Shiva for the golden palace itself! Shiva was obliged to accede to Ravana's wish, and the Golden Lanka became Ravana's palace.
Dwarka:
Among the many mythical towns Viswakarma built is Dwarka, the capital of Lord Krishna. During the time of the Mahabharata, Lord Krishna is said to have lived in Dwarka, and made it his "Karma Bhoomi" or center of operation. That is why this place in nothern India has become a well known pilgrimage for the Hindus.
Hastinapur:
In the present "Kali Yuga", Vishwakarma is said to have built the town of Hastinapur, the capital of Kauravas and Pandavas, the warring families of the Mahabharata. After winning the battle of Kurukshetra, Lord Krishna installed Dharmaraj Yudhisthir as the ruler of Hastinapur.
Indraprastha:
Vishwakarma also built the town of Indraprastha for the Pandavas. The Mahabharata has it that King Dhritrashtra offered a piece of land called 'Khaandavprastha' to the Pandavas for living. Yudhishtir obeyed his uncle's order and went to live in Khaandavprastha with the Pandava brothers. Later, Lord Krishna invited Vishwakarma to build a capital for the Pandavas on this land, which he renamed 'Indraprastha'.
Legends tell us about the architectural marvel and beauty of Indraprastha. Floors of the palace were so well done that they had a reflection like that of water, and the pools and ponds inside the palace gave the illusion of a flat surface with no water in them.
After the palace was built, the Pandavas invited the Kauravas, and Duryodhan and his brothers went to visit Indraprastha. Not knowing the wonders of the palace, Duryodhan was flummoxed by the floors and the pools, and fell into one of the ponds. The Pandava wife Draupadi, who witnessed this scene, had a good laugh! She retorted, hinting at Duryodhan's father (the blind king Dhritrashtra) "the son of a blind man is bound to be blind." This remark of Draupadi annoyed Duryodhan so much that later on it became a major cause for the great war of Kurukshetra described in the Mahabharata and the Bhagavad Gita. -
- Kaushik Panchal
(Ahmedabad)
जैसे राम् कृष्णा आदि ईश्वर के अनेक अवतार पुराणों में वर्णन किये गये है, वैसे ही विश्वकर्मा भगवान के अवतारों का वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में महादेव जी ने पार्वती जी से कहा है कि हे पार्वती मैं आप से पाप नाशक कथा कहता हूं। इसी कथा में महादेव जी ने पार्वती जी को विश्वकर्मेश्वर लिगं प्रकट होने की कथा कहते हुए त्वष्टा प्रजापति के पुत्र के संबंध में कहाः
प्रथम अवतार
विश्वकर्माSभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराSतनुः । त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस ।।
अर्थः प्रत्यक्ष आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों मे निपुण था।
दूसरा अवतार
स्कन्द पुराण प्रभास खंड सोमनाथ माहात्म्य सोम पुत्र संवाद में विश्वकर्मा के दूसरे अवतार का वर्णन इस भातिं मिलता है। ईश्वर उचावः
शिल्पोत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि श्रृणु षण्मुख यत्नतः । विश्वकर्माSभवत्पूर्व शिल्पिनां शिव कर्मणाम् ।।
मदंगेषु च सभूंताः पुत्रा पंच जटाधराः । हस्त कौशल संपूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
एक समय कैलाश पर्वत पर शिवजी, पार्वती, गणपति आदि सब बैठे थे उस समय स्कन्दजी ने गणपतिजी के रत्नजडित दातों और पार्वती जी के जवाहरात से जडें हुए जेवरों को देखकर प्रश्न किया कि, हे पार्वतीनाथ, आप यह बताने की कृपा करे कि ये हीरे जवाहरात चमकिले पदार्थो किसने निर्मित किये? इसके उत्तर में भोलानाथ शंकर ने कहा कि शिल्पियों के अधिपति श्री विश्वकर्मा की उत्पति सुनो। शिल्प के प्रवर्त्तक विश्वकर्मा पांच मुखों से पांच जटाधरी पुत्र उत्पन्न हुए जिन के नाम मनु, मय, शिल्प,त्वष्टा, दैवेज्ञ थे। यह पांचों पुत्र ब्रह्मा की उपासना में सदा लगें रहतें थे इत्यादि।
तीसरा अवतार
आर्दव वसु प्रभास नामक को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति जी की बहिन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाव से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया इसका वर्णन वायुपुराण अ.22 उत्तर भाग में दिया हैः
बृहस्पतेस्तु भगिनो वरस्त्री ब्रह्मचारिणी । योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा ।।
प्रभासस्य तु सा भार्या वसु नामष्ट मस्य तु । विश्वकर्मा सुत स्तस्यां जातः शिल्प प्रजापतिः ।।
मत्स्य पुराण अ.5 में भी लिखा हैः
विश्वकर्मा प्रभासस्य पुत्रः शिल्प प्रजापतिः । प्रसाद भवनोद्यान प्रतिमा भूषणादिषु । तडागा राम कूप्रेषु स्मृतः सोमSवर्धकी ।।
अर्थः प्रभास का पुत्र शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा देव, मन्दिर, भवन, देवमूर्ति, जेवर, तालाब, बावडी और कुएं निर्माण करने देव आचार्य थे।
आदित्य पुराण में भी कहा है किः
विश्वकर्मा प्रभासस्य धर्मस्थः पातु स ततः ।।
महाभारत आदि पर्व विष्णु पुराण औरं भागवत में भी इसका उल्लेख किया गया है।
विश्वकर्मा ऋषि
विश्वकर्मा नाम के ऋषि भी हुए है। विद्वानों को इसका पूरा पता है कि ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त दिया हुआ है, और इस सूक्त में 14 ऋचायें है इस सूक्त का देवता विश्वकर्मा है और मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वकर्मा है। विश्वकर्मा सूक्त 14 उल्लेख इसी ग्रन्थ विश्वकर्मा-विजय प्रकाश में दिया है। 14 सूक्त मंत्र और अर्थ भावार्थ सब लिखे दिये है। पाठक इसी पुस्तक में देखे लेंवे। य़इमा विश्वा भुवनानि इत्यादि से सूक्त प्रारम्भ होता है यजुर्वेद 4/3/4/3 विश्वकर्मा ते ऋषि इस प्रमाण से विश्वकर्मा को होना सिद्ध है इत्यादि। पाठकगण। वेदों और पुराणों के अनेक प्रमाणों से हम विश्वकर्मा को परमात्मा परमपिता जगतपिर्त्ता, सृष्टि कर चुके तथा विश्वकर्मा के अवतारों को भी पुराणों से बता चुके है। अब भी कोई हटधमीं करें तो हमारे पास उनका इलाज करने का तरीका भी है। इन टकापन्थी भोजन भट्टों ने बहुत धूर्तता की है। विश्वकर्मा देव की अवेहलना करने से ही इस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे है। न इनके पास खुद की उत्पत्ति है यह टकशाली ब्राह्मण यह देख पद्म पुराण के वचनों पर तनिक ध्यान नहीं देते, देखों कितना साफ कहा है। अर्थ विष्णु और विश्वकर्मा में कोई भेद नही।
विश्वकर्मा अनेक नामों से विभूषित
जगतकर्ता विश्वकर्मा भौवन विश्वकर्मा, ऋषि विश्वकर्मा धर्म ग्रंन्थों में अनेक अवतरण आये है। विषय अनेकानेक नामॆ में बटा हुआ है विश्वकर्मा ब्राह्मण कर्म है, अर्थात विश्वकर्मा सन्तान कहने का दावा करने वाले तथा अपने को पांचाल शिल्पी ब्राह्मण बताने वाले खरे ब्राह्मण है। यहां हम धर्मग्रन्थों के प्रमामों को देकर अन्त में ग्रथों के आधार पर भृगु, अंगिरा, मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ आदि की वंशावली भी सप्रमाण दिखायेंगे।
प्राचीन धर्म शास्त्रों में
शिल्पज्ञ, विश्वकर्मा ब्राह्मणों को रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पाँचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों में सम्बोधित किया गया था। उस समय आजकल के सामान लोहाकारों, काष्ठकारों और स्वर्णकारों आदि सभी के अलग-अलग सहस्त्रों जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय में शिल्प कर्म बहुत उंचा समझा जाता था, क्योंकि धर्मग्रंथों की खोज में हमें पता चलता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों ही वर्ण रथ कर्म अर्थात शिल्प कर्म करतें थे। हम यहां विश्वकर्मा ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्य विषयक कुछ प्रमाण देने से पूर्व यह उचित समझते है कि रथकार, पाचांल, नाराशस इत्यादि शब्दों के विषय में कुछ थोडा समजझा दें। जिससे आगे को जो धर्म शास्त्रों के प्रमाण हम दिखायेंगे उनमें जब इन शब्दों में से कोई आवे तो हमारे पाठकों को समझने में कठिनाई न पडें।
रथकार
यह शब्द प्राचीन धर्मग्रन्थों में अनेक स्थलों पर आया है, और उनकें शिल्पी ब्राह्मण के स्थान में प्रयोग हुआ है। अर्थात लोककार, काष्टकार, स्वर्णकार, सिलावट और ताम्रकार सब ही काम करने वाले कुशल प्रवीण शिल्पी ब्राह्मण का बोध केवल रथकार शब्द से ही कराया गया है, और यही शब्दों वेदों तथा पुराणों में भी शिल्पज्ञ ब्राह्मणों के लिए लिखा गया है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड अध्याय 6 में रथकार शब्द का प्रयोग हुआ हैः
सद्योजाता दि पंचभ्यो मुखेभ्यः पंच निर्भये ।। विश्वकर्मा सुता होते रथ कारास्तु पचं च ।।
तास्मिन् काले महाभागो परमो मय रुप भाक् ।। पाषणदार कंटकं सौ वर्ण दशकं तदा ।।
काष्ठं च नव लोहानि रथ कृद्यों ददौ विभुः ।। रथ कारास्तदा चक्रुः पचं कृत्यानि सर्वदा ।।
षडदशनाद्य नुष्ठानं षट् कर्मनिरताश्च ये ।।
अर्थः शंकर बोले कि हे स्कंन्द, सद्योजात् वामदेव, तत्पुरूष, अधीर और ईशान यह पांच ब्रह्म सज्ञंक विश्वकर्मा के पांच मुखों से पैदा हुए। इन विश्वकर्मा पुत्रों की रथकार सज्ञां है। अनेक रूप धारण करने वाले उस विश्वकर्मा ने अपने पुत्रों को टांकी आदि दस शिल्प आयुध अर्थात दस औजार सोना आदि नौ धातु लोहा, लकडीं आत्यादि दिया। उसके यह षटेकर्म करने वाले रथकार सृष्टि कार्य के पंचनिध पवित्र कर्म करने लगे।
रथकार शब्द क ब्राह्मण सूचक होने के विषय में व्याकरण में भी अष्टाध्यायी पाणिनि सूत्र पाठ सूत्र - शिल्पिनि चा कुत्रः 6/2/76 सज्ञांयांच 6/2/77
सिद्धांत कौमुदी वृतिः- शिल्पि वाचिनि समासे अष्णते ।
परे पूर्व माद्युदात्तं, स चेदण कृत्रः परो न भवति ।
ततुंवायः शिल्पिनि किम- काडंलाव, अकृत्रः किं-कुम्भकारः ।
सज्ञां यांच अणयते परे तंतुवायो नाम कृमिः ।
अकृत्रः इत्येव रथकारों नाम ब्राह्मणः पाणिनिसूत्र 4/1-151 कृर्वादिभ्योण्यः ।
ब्राह्मण जाति सूचक अर्थ को बताने वाले जो गोत्र शब्द गण सूत्र में दियें है, वह यह हैः कुरू, गर्ग, मगुंष, अजमार, ऱथकार, बाबदूक, कवि, मति, काधिजल इत्यादि, कौरव्यां, ब्राह्मणा, मार्ग्य, मांगुयाः आजमार्याः राथकार्याः वावद्क्याः कात्या मात्याः कापिजल्याः ब्राह्मणाः इति सर्वत्र।
तात्पर्य यह है कि व्याकरण शास्त्र में भी रथकार शब्द को आर्य गोत्र, ब्राह्मण जाति बोधक सिद्ध किया हुआ है और उसका उदाहरण भी रथकारों नाम ब्राह्मण दिया है। जिससे सिद्ध किया गया है कि रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है क्योकिं- रथं करोतिं इति रथकारः। अर्थात रथ निर्माण करने वाले ब्राह्मण का बोध प्राचीन ग्रथों में रथकार शब्द से होता है। यहां यह भी लिख देना जरूरी जान पडतां है कि स्मृतियों में रथकार एक संकीर्ण जाति को भी लिखा है, परन्तु जहां पवित्र देव शिल्प आदि का वर्णन आता है।वहां शिल्पी ब्राह्मण संतति रथकार का ही मतलब होता है। आपको रतकार विषय में शास्त्र के मन्त्र और रथकार का प्राचीन समय में जो मान, समान्न प्रतिष्ठा थी उस समय विश्वकर्मा का रथकार रूप विस्तृत था। राजे महाराजा सभी विश्वकर्मा रथकारों को आदर देते थे क्योंकि कलाकार राष्ट्रं के निर्माण करने मे अग्रसर रखतें थे यह ब्राह्मण वर्ग रथकारों में था।
पांचाल
रथकार शब्द के विषय के नमूने के तौर पर ऊपर उदाहरण देकर बता चुके है। अब इसी भातिं एक दो उदाहरण पांचाल शब्द के विषय में भी देकर बतावेंगे कि विश्वकर्मा ब्राह्मणों को प्राचीन धर्म ग्रन्थों में पांचाल भी कहा गया है। बराह पुराण में कहा हैः
पांचाल ब्राह्मणेति हासः कथं ।। तत्र सुवर्णालंकार वाणिज्यों प जीविनः पांचाल ब्राह्मणा ।।
शैवागम में कहा हैः
पंचालाना च सर्वेषामा चारोSप्य़थ गीयते । षट् कर्म विनिर्मित्यनी पचांलाना स्मुतानिच ।।
रूद्रयामल वास्तु तन्त्र में शिवाजी महाराज ने कहा किः
शिवा मनुमंय स्त्वष्टा तक्षा शिल्पी च पंचमः ।। विश्वकर्मसुता नेतान् विद्धि प्रवर्तकान् ।।
एतेषां पुत्र पौत्राणामप्येते शिल्पिनो भूवि ।। पंचालानां च सर्वेषां शाखास्याच्छौन कायनो ।।
पंचालास्ते सदा पूज्याः प्रतिमा विश्वकर्मणः ।। रूद्रवामल वास्तु तन्त्र व्रत्यादि ।।
उपरोक्त प्रमाणों में पाचांल शब्द का प्रयोग विश्वकर्माके स्थान में किया गया है। अर्थात् रथकार और पांचाल दोनों शब्द विश्वकर्मा ब्राह्मण बोधक ही है।
स्थापत्य
यज्ञ कर्म और देव कर्म संबंधी कर्म में कहीं कहीं विश्वकर्मा पाचांल ब्राह्मण की सज्ञां स्थापत्य भी कही गई है। जैसे भागवत स्कन्द 3 में स्थापत्य विश्वकर्म शास्त्र लिखा है, इसका यही अर्थ है कि यज्ञ सम्बधी और देव संबधी पवित्र शिल्प कर्म करने वाले विश्वकर्मा सन्तान ब्राह्मण है। इसकी पुष्टि अमर कोष के प्रमाण से भी होती है।
देखो - अमर कोष अ. ब्रह्मवर्ग - सगींष्प तोष्टय्या स्थपतिः
अर्थः बृहस्पति सज्ञंक इष्ट अर्थात् बृहस्पति सज्ञां वाले यह कर्म करने वाले बृहस्पति गुरू को कहते है और दूसरे बृहस्पति विश्व-कर्म कुलोत्पन्न शिल्पाचार्य हुए है।
नाराशंस
अंगिरा महर्षि को ऋग्वेद में नाराशंस कहा है इसका प्रमाण ऋग्वेद अ. 8/2/1 मे देखो - नराः अगिंरसः महर्षयः मनुष्य जाता वुत्पन्नत्वात् ते शंस्यते इति नाराशंसः।
बौधायन श्रौत् सूत्र के महा प्रवराध्याय में भी लिखा है - वसिष्ट शुनिकात्रि भृगु कण्व वाघ्रश्चाधूल राजन्य वैश्य इति नाराशंसः ।।
गोत्र प्रवर दर्पण में भी यह शब्द पाया जाता है - भृगु गणे त्वष्टयाः अग्ने नाराशंसान् व्याख्या स्यामः। वशिष्ठ शुनकात्रिभृगु काण्व बाघ्रश्चाधूल इति ।।
नाराशंस शब्द पितर सज्ञां में भी प्रयुक्त हुआ है। देखो ऋग्देव अध्याय 8/1/16/3 - मनोन्वा हुवामुहे नाराशंसेन सोमेने ।।
भाष्य - नरेः शस्यते इति नाराशंसः पितरः ।।
आश्वलायन श्रौत सूत्र में भी नाराशंस का प्रयोग मिलता है। देखो सूत्र 5/6/30 - आप्यायिताश्चिमतान् सादयंति ते नाराशंस भवति ।।
उपरोक्त अनेक प्रमाण हमने रथकार पांचाल, रथापत्य और नाराशंस शब्दों के प्रयोग को जिखाकर यह सिद्ध किया हा कि यह सब जहां कही भी धर्म ग्रन्थों में भी लिखे गये है। वहा वह शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक है। अब आगे हम यह सिद्ध करके दिखोयेगें कि विश्वकर्मा वंश के ब्राह्मण होने के और भी अनेक प्रमाण सनातनी धर्म ग्रन्थों मे खोजने से मिले सकते है। उपरोक्त ऱथकार, पांचाल, रथकार, नाराशंस यह सब स्तंभ प्रमाण सग्रंह अर्थात विश्वकर्म - ब्राह्मण - भास्कर से संग्रहीत किए है। यह पुस्कत स्वः जयकृष्ण मणिठिया, शर्मा, गुरूदेव की सग्रंहीत है जिसे विश्वकर्मा-विजय-प्रकाश में कई स्तम्भ संग्रहीत कर प्रकाशित किये है।
भृगु ऋषि कुल
वायु पुराण अध्याय 4 के पढने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वास्तव में विश्वकर्मा सन्तान भृगु ऋषि कुल उत्पन्न है देखों लिखा हैः
भार्ये भृगोर प्रतिमे उत्तमेSभिजाते शुभे ।। हिरण्य कशिपोः कन्या दिव्यनाम्नी परिश्रुता ।।
पुलोम्नश्चापि पौलोमि दुहिता वर वर्णिनी ।। भृगोस्त्वजनयद्विव्या काव्यवेदविंदा वरं ।।
देवा सुराणामाचार्य शुक्रं कविसुंत ग्रहं ।। पितृंणा मानसी कन्या सोमपाना य़शस्विनी ।।
शुक्रस्य भार्यागीराम विजये चतुरः सुतान् ।। ब्राह्मणे मानसी कन्या सोमपाना यशस्विनीः ।।
तस्या मेव तु चत्वार पुत्राः शुक्रस्य जज्ञिर ।। त्वष्टावरूपी द्वावेतौ शण्डामर्कोतु ताबुभो ।।
ते तदादित्य सकाया ब्रह्मकल्पा प्रभावतः ।।
अर्थः हिरण्यकश्यप की बेटी दिव्या और पुलोमी की बेटी पौलीमी उत्तम कुलीन, यह दोनों मृग ऋषि को विवाही गई। दिव्या नाम वाली स्त्री के गर्भ से शुक्राचार्य पैदा हुए। सोम्य पितरों की मानसी कन्या अगीं नाम वाली शुक्राचार्य को विवाही गई। शुक्राचार्य जी के सूर्य के समान ब्रह्म तेज वाले त्वष्टा, वस्त्र, शंड और अर्मक यह पुत्र पैदा हुए, इन चारो मे त्वष्टा ब्रह्म तेज से विशेष सुक्त था । अर्थात त्वष्टा में ब्रह्म तेज अधिक था। पाठक गण इससे स्पष्ट है कि त्वष्टा भृगु कुल मे पैदा हुआ और ब्राह्मण था, ब्राह्म तेज की विशे,ता ब्राह्मणत्व को साफ बता रही है। अब इसी कुल में त्वष्टा से विश्वकर्मा का जन्म सुनों।
त्रिशिरा विश्वरूपस्तु त्वष्टाः पुत्राय भवताम् ।। विस्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा प्रजापतिः ।।
अर्थः त्वष्टा प्रजापति के त्रिशिरा जिसका नाम विश्वरूप था बडा पराक्रमी औऱ उसका भाई विस्वकर्मा प्रपति यह दो पुत्र इसी विश्वकर्मा प्रजपति के विषय में स्कन्द पुराण रे प्रभास खंड में यह लिखा है।
विश्वकर्म महदभूतं विश्वकर्माणाम् मदंगेषु च सम्भूताः ।। पुत्रा पचं जटाधराः हस्त कौशल सम्पूर्णाः पंच ब्रह्मरताः सदा ।।
अर्थः शिल्पियों में विश्वकर्मा बडा महान हुआ, जिसके पांच जटाधारी पुत्र हुए। इन्ही विश्वकर्मा के पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ का वायु पुराण अध्याय, 4 में उल्लेख किया हुआ है इन्हीं पाचं पुत्रों की सतांन जो हुई वह सब भृगु कुलोत्पन्न विश्व-ब्राह्मण या पांचाल ब्राह्मण कहलाई।
पाठकगण ध्यान दें कि उपरोक्त विदित वंश बिलकुल साफ-सुथरा और खरा है। इसमें कोई अण्ड-बण्ड ऐसी उत्पत्ति नहीं है। जैसा कि इस पुस्तक की भूमिका में हम अकसाली ब्राह्मणों की उत्पत्ति जाति भास्कर और ब्राह्मणोंत्पत्ति मार्तण्ड के अधार पर दिखा चुके है। पाठको की जानकारी के लिए हम यहां भृगु कुल में उत्पन्न हुए सब ही ऋषियों का उत्पत्ति क्रमानुसार दिखाते है।
इस कुल में भृगु, च्यवन, दिवोदास और गृत्समद और शौनक यह वेद मत्रं के द्रष्टा हुए है।
भृगुः ब्रह्मदेव का मानस पुत्र क् शाप से मर गये तब ब्रह्मदेव ने उनको फिर उत्पन्न किया और वह वरूण के यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए और वरूण ने इनको अपना पुत्र ग्रहण किया। इसी कारण यह वारूणी भृगु के नाम से प्रसिद्ध हुए। विशेष जिसे देखना हो वायुपुत्र अ. 4 मत्स्य पुराण अ.252 महाभारत अनुशासन पर्व अ.85 निरूक्त दैवज्ञ कांड भाग पृ. 193 औऱ भारत वर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में देख सकतें है।
भार्गवः भृगु ऋषि के पुत्र सुक्राचार्य का ही नाम भार्गव है।यह देवों और दत्यों के दोनों के ही पुरोहित अर्तात् आचार्य थे। इन्होंने शिल्प शास्त्र का ओशनस नामक ग्रंथ भी लिखा है। वायु पुराण और बृहत्संहिता अ.50 में विशेष रूप से देख सकतें हैं।
त्वष्टाः शुक्राचार्य के चार पुत्रों में सें थे। इनमें अधिक ब्रह्मतेज था। विश्वरूप और विश्वकर्माइनके दो पुत्र थे।
शौनकः यह शुनक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि थे। पांचालो की शौन कायनी शाखा इन्हीं से चली है।
उपरोक्त सब ही ऋषि शिल्प कार्य करते थे। गोत्र प्रवर दीपिका में इस भृगु कुल के गोत्र प्रवर इस प्रकार दिये है।
भृगु ऋषि - भार्गव, च्यवन,, देवो दासेति।
वाध्न्यस्वा - भार्गव, वाध्न्यश्वा, देवो दासेति।
भार्गव - भार्गव, त्वष्टा, विश्वरूपेति।
वाधूल - भार्गव, वैतहव्य,सावेतसेति।
शुनक - शौनक, भार्गव, शौन हौत्र गार्त्समदप्ति।
किसी किसी ग्रन्थकार जैसे बोधयन नामक सूत्रकार ने वरिष्ठ शुनक अत्रि, भृगु, कण्व, वाध्न्यश्वा, वाधूल,यह गोत्र बी नाराशंस पांचालों के आर्षेय गोत्र लिखे है।
केवल आंगिरस कुल के प्रसिद्ध ऋषि
उपरोक्त अगिंरा वशांवली दी गई है, यह प्रमाण-सग्रंह से उधृत है। अगिंरा ऋषि ब्रह्मा, के मुख से उत्पन्न हुय़े। इनका वर्णन वेद, ब्राह्मण ग्रथं, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत और सभी पुराणों में उल्लेख है। अगिंरा कुल परम श्रेष्ठ कुल है।
अंगिरा
अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण, भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है। भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए। महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है। ऋग्वेद 10-14-6 मे कहा है किः
अमगिरासों नः पितरो नवग्वा अर्थर्वाणो भृगबः सोम्यासः। तेषां वयं सुभतौं यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसः स्यामः।।
अर्थः जिसके कुल में भरद्वाज, गौतम और अनेक महापुरूष उत्पन्न हुए ऐसे जो अग्नि के पुत्र महर्षि अंगिरा बडे भारी विद्वान हुए है उनके वशं को सुनों। अंगिरस देव धनुष और बाण धारी थे, उनको ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या यह तीनों विवाही गई। सुरूमा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव उतथ्य और उशिर यह पांछ पुत्र जन्में, पथ्या के गर्भ से विष्णु संवर्त, विचित, अयास्य असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा यह सात पुत्र उत्पन्न हुए। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज यह तीन पुत्र हुए। यह ऋषि पुत्र ऱथकार में बडें कुशल देवता थे, तो भी इनकी गणना ऋषियों में की गई है। बृहस्पति का पुत्र महा य़शस्वी भरद्वाज हुआ, यह सब अंगिरा भृगु आदि द्व शिल्प के निर्माण वाले रथकार नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमे स्पष्ट सिद्ध हो गया की प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों रथकार भी कहा करते थे और रथकार शब्द ब्राह्मण जाति बोधक है,इस विषय में हम पूर्व पर रथकार शब्द को व्याकरण की कसौटि पर कसकर ब्राह्मण बोधक सिद्ध कर चुके है।
महाभारत अमुसाशन पर्व अध्याय पर्व अध्याय 83 में अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय सज्ञां होने के विषय में यह उल्लेख हैः
अष्टौ चांगिरसः पुत्राः आग्नेयास्तेSप्युवाह्रताः। बृहस्पतिरूतथ्यश्य पयस्यः शांतिरेवच। धोरो विरूपः संर्वतः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
श्री विश्वकर्मा प्रश्नावली
? निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां है, बहुत ये विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपधिं मानते है, क्योंकि सस्कृंत साहित्य मे बि समकालीन कई विश्वकर्माओ का उल्लेख मिलता है ।
Ans : निःसदेंह यह विषय निर्भ्रय नही है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तता त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा आदि अनेंको विश्वकर्मा हुए है । यह अनुसंधान का विषय है । सम्पूर्ण सस्कृंत साहित्य का अवलोकन किया जाय, विदेशो मे भी खोज की जाय, क्योकि यूरोपिय लोग भी लिश्वकर्मा कों “ फॅदर आँफ आर्टस ”(father of Arts) मानते है यह उत्कृष्ट विद्वानों का महान कार्य है, परन्तु अब तक की खोज के आधार पर जों निष्कर्ष सम्मुख आया है उसी के आधार पर कहा जा सकता है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा के पश्चात् ही उपाधि प्रचलित होती है। प्रारंभ से नहीं । विश्वकर्मा ही नहीं इन्द्र, व्यास, ब्रह्मा, जनक, धन्वन्तरि आदि अनेकों ऐसी उत्कृष्ट विभूतिययँ उपाधियों के रुप में प्रचलित हैं, परन्तु इनका मूल पुरुष अवश्य है। जैसे देवराज नामक इन्द्र द्वारा जब विश्वकर्मा पुत्रों की हत्या करकें ब्रह्महत्या का पता लगा तो ऋषियों औरं देवताओं ने मिलकर देवराज इन्द्र को पदच्युत कर इन्द्र को गद्दी पर आसीन कर दिया, इसी प्रकार सीताजी को जिस राजा जनक की पुत्री माना जाता है उसका नाम राजा सीरध्वज था । व्यास और ब्रह्मा उपाधि धारकों के लिये भी मूल पुरुष की खोज की जा सकती हैं ।
हमारा उद्देश्य तो यहां विश्वकर्मा का परिचय कराना है, माना कई विश्वकर्मा हुए हंत और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणो को धारण करने वाले ऋष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो बात भी मानी जानी चाहिये । शास्त्र में भी लिखा हैः-
स्थपति स्थापनाई : स्यात् सर्वशास्त्र विशारद : । न हीनागडों अतिरिक्तगडों धार्मिकस्तु दयापर:।। 1 ।।
अमात्सर्यो असूयश्चातन्द्रियतस्त्वभिजातवान् । गणितज्ञ : पुराणज्ञ सत्यवादी जितेन्द्रिय:। 2 ।।
गुरुभक्ता सदाहष्टा: स्थपत्याज्ञानुगा: सदा । तेषाम्व स्तपत्याख्यो विश्वकर्मेति सस्मृत:।। 3 ।।
अर्थः- जो शिल्पी निर्माण कला में सिध्दहस्त सन्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो ।।1।। जो अहंकार करनेवाले ईर्ष्यालु और प्रमादी न हो, गणित विद्दा का पुर्ण पडिंत हों, वेंदों के व्याख्यान रुप ब्रह्मण ग्रथों और इतिहास में पारंगत हो, सत्यवादी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला आज्ञाकारी हो इस प्रकार के गुणों से युक्त रचियता को विश्वकर्मा कहते है ।।3।। मयमतम् के कथन से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि प्रचलित हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि विश्वकर्मा नाम का कोई मूल पुरुष या पुरुष हुआ ही न हो !विव्दानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरूष विश्वकर्मा कौन से हुए ? कुछेक विव्दान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते है, परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभास पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते है , परन्तु महाभारत कें खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभास पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें है । स्कंद पुराण प्रभास खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है-
बृहस्पतेस्तु भगिनी भुवना ब्रम्हवादिनी । प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च । विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
अर्थः महर्षि अंगिरा कं ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रम्हविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभात की पत्नी बनी और उसमें सम्पूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ । पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है ऐसा पाठभेद अवश्य है ।
? आप आदि विश्वकर्मा किसे मानतें है ?
हम प्रभात पुत्र भुवना माता से उत्पन विश्वकर्मा को ही आदि या मूल विश्वकर्मा मानते है।
? यह बात आप किस आधार पर कहते है?
Ans : हजारों वर्ष पहले महाराज भोज देव ने जो सस्कृंत के प्रकांड पडिंत थे वास्तु विद्या का ग्रंथ “ समरागंण सूत्रधार ” लिखा था उसमें लेखक ने अपना इष्टदेव भगवान विष्वकर्मा को माना है उन्होने ग्रंथ के आदि में अपने इष्ट का स्वतवन करतें हुए लिखा है-
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिध्दि प्रवर्तकः । सुतः प्रभासस्य विभो स्वस्त्रीयश्च बृहस्पतेः ।।
अर्थः शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है,सम्पूर्ण सिध्दियों का आचार्य है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र देवगुरु बृहस्पति का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहित) है। अगिंरा कुल से विश्वकर्मा का संबंध तो सभी विद्वान स्वीकार करतें है। भोजदेव के प्रमाण में किसी को शंका यों नही होनी चाहिये कि आधुनिक काल के महाविद्वान महर्षि दयानन्दने लिखा है- “महाभारत के पश्चात हजारों वर्ष व्यतीत होने पर ङोज को वेदों का ज्ञान था। भोजकाल मे ही शिल्पियों ने काठ का घोडा बनाया था। जो एक घन्टे मे सत्ताईस कोस चलता था । ऐसा ही एक पखां बनाया था बिना मनुष्य के चलाये पुष्कल वायु देता था । यदि ये पदार्थ आज तक बने रहते तो अंग्रेजों को इतना गर्व नही होता । भोजकाल में किसी ने वेद विरुध्द पुराण खडा किया था तो राजा भोज ने उसके हाथ कटवा दिये थे ।
हमारा कथन यह है कि जब हजारों वर्ष पहले तक आदि विश्वकर्मा को महर्षि प्रभाव का पुत्र मानने का प्रचलन था या परम्परा थी तो अब इस काल में शंका क्यों की जाती है ? विश्वकर्मा कोई आधुनिक काल का देवता तो है नहीं ये तो वैदिक कालीन है। ऋग्वेद जो विश्व का सबसे प्रचीन ग्रथं माना जाता है उसमे चौदह ऋताओ वाला विश्वकर्मा सूक्त है। यदिपुराणो की वेदव्यास की रचना माना जाये तो पद्मपुराण भू खण्ड के इन शब्दों पर विचार करें- सर्व देवेषु यत्सूक्तं पठ्यते विश्वकर्मणः। चतुर्दशा वृतेनौनें यइमेत्यादिना यजेत् ।।2।। अर्थातसबी देवगणं विश्वकर्मा संबंधी जिस सूक्त का पाठ कर यजन करतें है वह8 सूक्त यइमाभुवनानि मंत्र से आरंभ होता है और ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 82 के सातवें मत्रं तक 14 ऋचाओं में पूर्ण होता है । यास्काचार्य ने भी निरक्त मे विश्वकर्मा के सार्वभौम यज्ञ का वर्णन करते हुए लिखा है- तदभिवादिनी एषा ऋक् भवति । यइमा विश्वा भुवनानि जुहवत इति । इस कथन में भी ऋग्वेद के यइमा शब्दों से आरंभ होने वाती ऋचा का उल्लेख है जिसके द्वारा आरंभ करके सूक्त के चौदहों मत्रों से यज्ञ सम्पन्न हुआ ।चौदह मत्रों का यह सूक्त और इसका देवता तथा ऋषि तीनों ही विश्वकर्मा नाम से ऋग्वेद में उल्लिखित है। हजारों-हजारों वर्षों के ये शास्त्रीय प्रमाण सिद्ध करते है कि निर्माण के देवता विश्वकर्मा की पूजा के प्रसंग में अत्यतं प्राचीन काल से यजन याजन होते रहे है । भारतीय इतिहास में इतनी प्राचीन वैदिक पूजा पद्धती और किसी देवता की नही मिलती ।
? सूक्त का क्या अर्थ है और वेदों में कितने सूक्त होते है ?
Ans : सूक्त शब्द सू + उक्त इस प्रकार बना है सू का उर्थ है सुन्दर ढंग से या भली प्रकार उक्त का अर्थ है कहना या बताना जिस मंत्र समूह में किसी विषय को भली प्रकार कहा जाय अर्थात सुन्दर अभिव्यकित को सूक्त कहते हैं। वेदों में सैकडो ही सूक्त हैं जैसे इन्द्र सूक्त, अग्नि सूक्त इसी प्रकार विश्वकर्मा सूक्त आदि हैं।
? यह बात तो समझ में आ गई जब प्रभात पुत्र विश्वकर्मा की आदि विश्वकर्मा के रुप में हजारों वर्ष पूर्व से मान्यता रही है तो यह विवाद का विषय नही रहा । परन्तु एक शकां नए सिरे से उभरकर सामने आई है, आपने बताया विश्वकर्मा सूक्त का मंत्र द्रष्टा ऋषि भौवन है जिसे दूसरे विद्वान भुवन पुत्र विश्वकर्मा बताते हैं। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा के साथ तो भौवन शब्द कैसे सिद्ध होगा या फिर वेदमंत्र द्रष्टा ऋषि दूसरा विश्वकर्मा मानना पडेगा ?
Ans : हमने जैसा कि पहले बताया है विश्वकर्मा का विषय गहन अनुसधांन का फिर भी भौवन शब्द का निराकरण वेद के भाष्य कर्ता शतायु विद्वान श्रीपाद दामोदर सातवलाकर ने अपनी लिखी पुस्तक “ विश्वकर्मा ऋषि का तत्वज्ञान ” में अनेंको विद्वानों के मत से इस प्रकार किया है कि प्रभात पुत्र विश्वकर्मा की माता जो देवगुरु बृहस्पति की बहन है उसका नाम भुवना होने के कागण पुत्रका नाम भौवन विश्वकर्मा माना गया है, और यही भौवन विश्वकर्मा वैदमंत्र ऋषि है । भुवना शब्द भुवन से बना है जिसका अर्थ हैं लोक । तीनों भुवनों (लोंकों) मे जिसकी ख्याति हो उसे भुवना कहते है।
? आपने विश्वकर्मा को सभी देवताओं का आचार्य बताया है । हमें यह मान्यता पक्षपातपूर्ण लगती है, स्पष्टीकरण कीजिये ।
Ans : हमनें नही, महाराज भोजदेव ने अपने ग्रन्थ ‘ समरांगण सूत्रधार ’ में उन्हें तदेश त्रिदशाचार्य सरेव सिद्धी प्रवर्तकः अर्थात सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक और देवताओं का आचार्य माना है । अष्ट सिद्धी और नव निधिंया मानी गई है । आज भी जिस समाज ऐर राष्ट के नागरिकों के शिल्प विज्ञान का ज्ञान है सम्पूर्ण सिद्धियों मौजुद है वे ही देवताओं का आचार्य है । भोजदेव ने ही क्यों पुराणों में विश्वकर्मा जी को सर्व देव मय माना हैं। स्कन्द पुराण नागर खण्ड में लिखा है,
विश्वकर्माअभवत्पूर्व ब्रह् मरस्त्वपरातनुः ।
अर्थ पूर्व काल में ब्रह्मा जी और विश्वकर्मा जी का एक ही शरीर था । यहां विश्वकर्मा को ब्रह्मा का स्वरुप माना है। वायु पुराण में आता है 'विष्णुश्च विश्वकर्माचनभिद्येतेपरस्परम्' विष्णु भगवान और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं मानना चाहिये । ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ बृद्धवाशिष्ठ में लिखा है माघे शुक्ले त्रयोदश्यांदिवा पुण्ये पुनर्वसौ । अष्टा विंशति में जातःविश्वकर्मा भवनि च । अर्थः-शिवाजी महाराज अपनी पत्नी पार्वती को कह रहे है माघ के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी के दिन पुनर्वस नामक नक्षत्र के अट्ठाईसवें अशं में विश्वकर्मा स्वरुप में उत्पन्न हुआ । यहां शिव अपने को विश्वकर्मा स्वरुप मे मान रहे है । पुराणों मे स्पष्ट उल्लेख है 'कृष्णश्च विश्वकर्मा च न भिद्येते परस्परम् ।' अर्थात भगवान कृष्ण और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं है । पुराणों के इन प्रमाणों से सभी शिरोमणि देवगण ब्रह्मा, विष्णु, शिव और भगवान कृष्ण तक विश्वकर्मा स्वरुप मे अपने को स्वीकार करतें है। देवियों मे विद्या की अधिष्ठात्री देवी प्रथम वन्दनीय मानी जाती है उसके लिये भी पुराणकार कहते है त्वाष्ट्ररुपा सरस्वती सर्व देवी भी विश्वकर्मा जी का ही स्वरुप है । पुराण तो वेदाव्यास जी महाराज के लिखे माने जाते है । जब वेदाव्यास जी सम्पूर्ण देवी देवताओं को विश्वकर्मा स्वरुप मानते है तो विश्नकरम जी को देवताओं का आचार्य मानने में किसे सन्देह हो सकता है ?
? जैसा कि आपने भी माना है सभी विद्वान ऐर शास्त्रकार विश्वकर्मा जी कों अगिंरा ऋषि कुल से जोडते है परन्तु अगिंरा ऋषि को तो ब्राहण मात्र गोत्रकार षि मानते है फिर आपका ही विशेष लगाव कैसे माना जाय ?
Ans : नि:संदेह महाभारत में लिखा है भार्गवांगिरसो लोके संताल लक्षणौ इसका तात्पर्य है पृथ्वी पर सभी मनुष्य भृगु और अंगिरा की संतान है इसलिये इन ऋषियों पर सभी का अधिकार माना जा सकता है । परन्तु विश्वकर्मा वंशजों का तो अंगिरा से सीधा ही संबंध है । विश्वकर्मा ब्राहाण लोग अथर्ववेद हैं, अथर्ववेद का ज्ञान परमात्मा ने अंगिरा ऋषि द्वारा ही ब्रह्रमा और दूसरे ऋषियों तक पहुचाया है, सृष्टी के आरंभ में चार ऋषियों द्वारा ही चारों वेंदों का ज्ञान मानव मात्र के लिये दिया, ऐसा वेदों की मान्यता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामदेव और अर्थर्ववेद का ज्ञान क्रमषः अग्नि, वायु आदित्य और ऋषियों द्वारा ही मानव जाति को प्राप्त हुआ । इस बात को वेंदो के सभी विद्वान स्वीकार करतें है, चारों वेदों के चार ही उपदेव है सस्कृंत साहित्य के ग्रंथ चरणव्युह आदि में स्पष्ट उल्लेख हैं
आयुर्वेदश्चिकित्सा शास्त्रंऋग्वेदस्योपवेदः। धनु र्वेदो युद्ध शास्त्रंयजुर्वेदस्योपवेदः। गंधर्ववेद सगींत शास्त्रं सामवेदस्योपवेदः। अर्थव्दो (स्थापत्यवेदो) विश्वकर्मादि शिल्प शास्त्रं अर्थर्ववेदस्योपवेदः ।।
अर्थः ऋग्वेद का उण्वेद आयुर्वेद है जिसे चिकित्सा शास्त्र कहते है । यजुर्वेद का उपदेव धनुर्वेद है जिसे सगींत शास्त्र कहते है और अर्थर्ववेद का उपदेव अर्थर्ववेद है जिसके अन्तर्गत विश्वकर्मा का सम्पूर्ण शिल्प शास्त्र आता है । इस प्रकार हम वंशावली के साथ–साथ अथर्ववेदी होने सीधे अंगिरा ऋषि से जुड जाते है ।
Lord Vishwakarmadada
Vishwakarma is the presiding deity of all craftsmen and architects. Son of Brahma, he is the divine draftsman of the whole universe, and the official builder of all the gods' palaces. Vishwakarma is also the designer of all the flying chariots of the gods, and all their weapons.
The Mahabharata describes him as "The lord of the arts, executor of a thousand handicrafts, the carpenter of the gods, the most eminent of artisans, the fashioner of all ornaments ... and a great and immortal god." He has four hands, wears a crown, loads of gold jewelry, and holds a water-pot, a book, a noose and craftsman's tools in his hands.
Vishwakarma Puja:
Hindus widely regard Vishwakarma as the god of architecture and engineering, and September 16 or 17 every year (in Gujarati months Maha sud teras Vishwakarmateras) are celebrated as Vishwakarma Puja — a resolution time for workers and craftsmen to increase productivity and gain divine inspiration for creating novel products. This ritual usually takes place within the factory premises or shop floor, and the otherwise mundane workshops come alive with fiesta. Vishwakarma Puja is also associated with the buoyant custom of flying kites. This occasion in a way also marks the start of the festive season that culminates in Diwali.
Vishwakarma's Architectural Wonders:
Hindu mythology is full of Vishwakarma's many architectural wonders. Through the four 'yugas', he had built several towns and palaces for the gods. In "Satya yuga", he built the Swarg Loke, or heaven, the abode of the gods and demigods where Lord Indra rules. Vishwakarma then built the 'Sone ki Lanka' in "Treta yuga", the city of Dwarka in "Dwapar yuga", and Hastinapur and Indraprastha in the "Kali yuga".
'Sone Ki Lanka' or Golden Lanka:
According to Hindu mythology, 'Sone ki Lanka' or Golden Lanka was the place where the demon king Ravana dwelled in the "Treta yuga." As we read in the epic story Ramayana, this was also the place where Ravana kept Sita, Lord Ram's wife as a hostage.
There is also a story behind the construction of Golden Lanka. When Lord Shiva married Parvati, he asked Vishwakarma to build a beautiful palace for them to reside. Vishwakarma put up a palace made of gold! For the housewarming ceremony, Shiva invited the wise Ravana to perform the "Grihapravesh" ritual. After the sacred ceremony when Shiva asked Ravana to ask anything in return as "Dakshina", Ravana, overwhelmed with the beauty and grandeur of the palace, asked Shiva for the golden palace itself! Shiva was obliged to accede to Ravana's wish, and the Golden Lanka became Ravana's palace.
Dwarka:
Among the many mythical towns Viswakarma built is Dwarka, the capital of Lord Krishna. During the time of the Mahabharata, Lord Krishna is said to have lived in Dwarka, and made it his "Karma Bhoomi" or center of operation. That is why this place in nothern India has become a well known pilgrimage for the Hindus.
Hastinapur:
In the present "Kali Yuga", Vishwakarma is said to have built the town of Hastinapur, the capital of Kauravas and Pandavas, the warring families of the Mahabharata. After winning the battle of Kurukshetra, Lord Krishna installed Dharmaraj Yudhisthir as the ruler of Hastinapur.
Indraprastha:
Vishwakarma also built the town of Indraprastha for the Pandavas. The Mahabharata has it that King Dhritrashtra offered a piece of land called 'Khaandavprastha' to the Pandavas for living. Yudhishtir obeyed his uncle's order and went to live in Khaandavprastha with the Pandava brothers. Later, Lord Krishna invited Vishwakarma to build a capital for the Pandavas on this land, which he renamed 'Indraprastha'.
Legends tell us about the architectural marvel and beauty of Indraprastha. Floors of the palace were so well done that they had a reflection like that of water, and the pools and ponds inside the palace gave the illusion of a flat surface with no water in them.
After the palace was built, the Pandavas invited the Kauravas, and Duryodhan and his brothers went to visit Indraprastha. Not knowing the wonders of the palace, Duryodhan was flummoxed by the floors and the pools, and fell into one of the ponds. The Pandava wife Draupadi, who witnessed this scene, had a good laugh! She retorted, hinting at Duryodhan's father (the blind king Dhritrashtra) "the son of a blind man is bound to be blind." This remark of Draupadi annoyed Duryodhan so much that later on it became a major cause for the great war of Kurukshetra described in the Mahabharata and the Bhagavad Gita. -
- Kaushik Panchal
(Ahmedabad)